मन की तरंगे कहाँ कहाँ उड़ा ले जाती हैं
कभी तो खुद को ऊँची से ऊँची ऊँचाइयों में देखते हैं,
और कभी, पाताल की अँधेरी गहराईयों में
ये मन है, ठहरेगा नहीं
ठगेगा, और कंगाल बनाकर छोड़ेगा
अग़र लगाम ना लगाई तो,
मन, शक्तिशाली औज़ार, जो नुक़सान करने पे
उतर आये तो. आप तो गये भई,
और अग़र संभला हुआ हो,
तो भलाई की बातें खूब जानता है
रंक को राजा बना देता है
और महलों में बिठा देता है,
और अग़र आपने ज़रा सी लापरवाही दिखाई
तो भई,
हाथ में पकड़ा हुआ पंख भी, लोहे की ज़ंजीरों सा भारी लगता है
कोई भी कार्य परिणित होने के पहले
मन में घटता है, फिर मूर्त रूप में
कोई भयंकर दुःख पहले विचारों में आता है
फिर वो सच में होता है, क्योंकि हमने उसका अहसास किया है, तो होगा ही,
मन से भागना विकल्प नहीं
सामना करना होगा,
ख़ासकर ध्यान तब देना है, जब ज़िंदगी जीते ही ना बने,
हम बहते ही जायें मन के अविरल प्रवाह में,
तब संभलने की ज़रूरत है,
ऐसे में, मन की लगाम को थाम लो,
थोड़ा रुको, देखो क्या खेल खेल रहा है मन,
वो कमज़ोर कर रहा है, या मज़बूती दे रहा है
जो भी हो,
इसको क़ाबू तो करना ही होगा,
वैसे ही जैसे, कृष्ण ने सारथी बन किया
अच्छाई को ज़िन्दा रखा और बुराई को ख़त्म किया,
पहले मन में किया, फिर युद्धभूमि में
हमें भी यही करना है
खुद का युद्ध, खुद से जीतना है
किसी और से नहीं!